प्रेम और धर्म


प्रेम और धर्म


एक ओर धर्म और मर्यादा की सीमा है तो दूसरी ओर प्रेम और भक्ति की परिसीमा,

अपने धर्म पर मनुष्य की दृढ़ता देखकर देवता भी अपने भक्त की वंदना करते हैं।


धर्म ही सबसे बड़ी शक्ति है जिसके सहारे ये धरती स्थिर है, शास्त्रों के अनुसार तीनो लोकों में धर्म से बड़ा कुछ भी नहीं जिससे हम सब बंधे हुए हैं।
परन्तु प्रेम एक ऐसी दिव्य नीति है जिस पर किसी धर्म का कोई बंधन नहीं, प्रेम निश्च्छल, निःस्वार्थ है प्रेम सभी धर्मों के ऊपर है।
वही प्रेम अपनी पराकाष्ठा में जब अनन्य भक्ति का रूप धारण कर लेता है,तो स्वयं भगवान भी विधाता के बनाये हुए क्रम के सारे विधान, सृष्टि के सारे नियम तोड़कर भक्त के आगे हाथ जोड़कर खड़े रह जाते हैं, और वो अपने भक्त की आन रखने पर विवश हो जाते हैं।

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